Friday, May 9, 2008

रिश्तों की मजबूरी

दल्दले में फसे है िरश्ते अब बढ़ नहीं पाते,रुक रुक कर चलते है मंजिल तक नहीं जाते
सूरज हूँ बादल बन कर कब तक ढकोंगे मुझे,सुनहरी साडी ओढा दु, दामन में ढक नहीं पाते
तेरा, मेरे दर तक आना और वापस चले जाना,रुकते अगर जरा सा तो िरश्ते बदल नहीं जाते
वक्त का अँधेरा है घना फैला ओ मेरी परछाई,मेरे बगैर तुजे उजाले में भी लोग जान नहीं पाते


जिन रिश्तो में कामना होती है,
वोह कभी मंजिल तक नहीं जाते ।

काठ की हांडी बार बार चढाई नहीं ,जाती

साडी औढाने से दाग छिप नहीं जाते ।

मुझे गैरत है और तुम्हारी इज्ज़त की फिक्र है ,

नहीं तो सुबह तक अखबार निकल जाते ।

दीन के उज्जाले में भी सीता को धोबिओं ने नहीं बख्शा -

रात के अँधेरे के मिलन पता क्या कहर ढहाते ॥

1 comment:

Batangad said...

मित्तल साहब आपका प्रोफाइल देखकर लगा। कितना कुछ कर डाला है आपने। खैर, एक सुझाव है। ब्लॉग में इतने रंग न डालें। पढ़ने में मुश्किल हो रही है। रिश्तों की मजबूरी की गुलाबी लाइनें तो बहुत आंख फोड़ने पर भी नहीं दिख रहीं हैं।