Tuesday, May 27, 2008

फितने से सवाल जवाब

तुम दुर्गा हो तुम शक्ति हो
तुम ही इंदिरा सोनिया सी राज करती हो

तुम रति रम्भा और उर्वशी हो
तुम ही मीरा हो तुम मेरी भक्ति करती हो

तुम बोर कहो या हंसी कहो
हमने तो इज्ज़त बख्शी है की तुम खुश रहो

दुःख तो हमरे पास नहीं फटकता
हमने तो तुमसे आशियाँ जोडा है

हम जैसे भी हैं वैसे ही हैं
तुम क्यों पेट पिटती हो कल्पती हो

दुखी मत हो। यह मेरी नीयती है।
मैं नारी शक्ती हूँ। जब भी मैंने
तुम्हे ठेठ उजाले से जोड़ा है
तुमने मुझे इसी तरह बोर कवीता सुनाई
और इसी तरह तोड़ा ह


हर इंसान की यही फितरत होती है
भर थाली देख भूख लगी होती है

मुझे तो कृष्ण कन्हैया ही कहते है हुजुर
गोपियों के झुंड पे तो इंनायत ही होती है

तुम अपना बताओ क्या हाल है
दिल में हम बसे सुबह से हमारा ही ख्याल है

तुम्हारी नज़र में हमारा छा जाना ही
हमारा मुकद्दर ए हाल है


ां हां हां हां हां हां हां .....
मैं क्यों घंटी बजाऊ ...मुझे क्या पडी है ..
मीत्तल जी तुम जो शरीफ बने बैठे हो शराफत के कुण्ड पर ।
सच कहती हू गाज बन के गीरते हो परियों के झुण्ड पर ।।



मुझे तो तेरी आंखों ने इतनी पिलादी की मुझे होश नहीं
तुने कहते हैं किया मुझे बर्बाद मुझे खबर नहीं

मैं तो तेरे गेसुओं का कैदी था तुने कब रिहा किया
मैं तो तेरी आँचल की खुशबू में डूबा था कब बाहर किया

मैं तेरा आशिक था हुस्न की मलिका
गम नहीं तुने ही इस नाचीच को बर्बाद किया

गुलशन में कितनी ही कलियाँ चटकी हर आवाज पे
मैं यह समझा तुने ही इरशाद किया

तू मुडके देखेगी इस आशिक को जान ए मन
तुझे मालूम होगा तुने खुद से ही बेवफाई का आगाज़ किया


सोज़-ए-गम दे मुझे उसने ये इरशाद किया
जा तुझे कशमकश-ए-दहर से आज़ाद किया
वो करें भी तो किन अलफ़ाज़ में तेरा शिकवा
जिनको तेरी निगाह-ए-लुत्फ़ ने बरबाद किया
इतना मानूस हूँ फितरत से, कली जब चट्की
झुक के मैंने ये कहा, ''मुझ से कुछ इरशाद किया?''
मुझको तो होश नहीं, तुम को खबर हो शायद
लोग कहते हैं कि तुमने मुझको बरबाद किया


वल्लाह कया बात है.......

जब भी तुम्हे देखता हूँ
उपर वाले की कुदरत नजर आती है
तुझे आती होगी बदबू
हमें तो तेरे में गुलाबों की मुलामियत और खुशबू नज़र आती ह
तू मौन है कायनात सून है
छत के उपर मून है
लोहे की खनक चाहे चांदी की चमक
तेरे हुस्न के सामने सब गौण है


जब मै अपनें ही जैसे कीसी आदमी से बात करती हूँ,
साक्षर है पर समझदार नहीं है ,ये सोच के डरती हू..
अब कुछ बोलो भी जनाब ..
जब मैं भूख और नफ़रत और प्यार और ज़िंदगी
का मतलब समझाती हूँ-
जब मैं ठहरे हुए को हरकतमें लाती हूँ -

..चुप्पी तोड़ो ना


तुम ठीक ही ड़रती हो
समझदार हो
अपनी औकात समझती हो
मतलब समझाने का दम भी भरती हो
कायनात पे हुक्म चलने का जज्बा भी रखती हो
मुर्दा में जान ठंडे में गर्मी भरने का दावा भी करती हो
हे नाजनीन, हे महजबीं ................
डरती हो हमारे हुनर से
चुप रहने का इशारा भी करती हो

हम तुम्हारा इशारा समझते है
तुम्हारी हर अदा पे हम जा निस्सार करते है

तुम कहोगे तो सारी जीन्दगी चुप रहेंगे हम ,
नहीं खेलेंगे तुम्हारे हसीं जज्बातों से
यह अहद आज हम करते है

कैसी लगी हा .....हा.......हा.....


कई बौखलाए हुए मेंढक
कुएँ की काई लगी दीवाल पर चढ़ गए,
और सूरज को धीक्कारने लगे
--व्यर्थ ही प्रकाश को लीये घूमता रहता है
सूरज कीतना मजबूर है की हर चीज़ पर एक सा चमकता है।
चाहे बदबू हो या "खुशबु"

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