Sunday, April 13, 2008

शीकायत और जवाब


मेरे अपने मुझे मिटटी मैं मीलाने आये
अब कहीं जाके मेरे होश ठीकाने आये

ज़माने का दस्तूर है मीलाने, मिटटी में अपने ही आते हैं
तुम्हे शायद कुछ गुमान था, जो अब ठीकाने होश आते हैं

तुने बालों मैं सजा रक्खा था कागज़ का गुलाब
मैं ये समझा के बहारों के ज़माने आए

तुम्हारी आंखों का धोका या अलाह, फूल तुम ही लाये थे
हम ने तो सीर्फ़ बालों में लगाये हैं .
तुम तो बड़े जालीम हो, कल तक हम तुम्हारी बहार थे,
आज तुम्हे कागज नज़र आये हैं

चाँद ने रात की देहलीज को बख्शें है चीराग
मेरे हीस्से मैं भी अश्कों के खजाने आये

चाँद तो रोज़ नज़र आता है चीरागों को सुलाने,
अस्क बहाने को, और बहुतसे बहाने हैं


दोस्त होकर भी महीनों नहीं मीलता मुझसे
उससे कहना के कभी ज़ख्म लगाने आये

आपनी गीरेह्बान में झांक औ जालीम,
अस्कों के दरीया तो तेरी इंतज़ार में हमने बहाए हैं.
जख्मो की बात जमती नहीं तुमपे,
जख्म तो हमने खाए हैं

फुर्सतें चाट रही है मेरी हसरतों का लहू
मुन्ताजीर हूँ की मुझे कोई बुलाने आये

इस कलाम को मेरे दील का पैगाम समझ्ले, उड्के आजा,
रात गुजरती नहीं दीन भी तेरे जर ए साये हैं

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