सोज़-ए-गम दे मुझे उसने ये इरशाद किया
जा तुझे कशमकश-ए-दहर से आज़ाद किया
वो करें भी तो किन अलफ़ाज़ में तेरा शिकवा
जिनको तेरी निगाह-ए-लुत्फ़ ने बरबाद किया
इतना मानूस हूँ फितरत से, कली जब चट्की
झुक के मैंने ये कहा, ''मुझ से कुछ इरशाद किया?''
मुझको तो होश नहीं, तुम को खबर हो शायद
लोग कहते हैं कि तुमने मुझको बरबाद कियआ
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मुझे तो तेरी आंखों ने इतनी पिलादी की मुझे होश नहीं
तुने कहते हैं किया मुझे बर्बाद मुझे खबर नहीं
मैं तो तेरे गेसुओं का कैदी था तुने कब रिहा किया
मैं तो तेरी आँचल की खुशबू में डूबा था कब बाहर किया
मैं तेरा आशिक था हुस्न की मलिका
गम नहीं तुने ही इस नाचीच को बर्बाद किया
गुलशन में कितनी ही कलियाँ चटकी हर आवाज पे
मैं यह समझा तुने ही इरशाद किया
तू मुडके देखेगी इस आशिक को जान ए मन
तुझे मालूम होगा तुने खुद से ही बेवफाई का आगाज़ किया
हां हां हां हां हां हां हां .....
मैं क्यों घंटी बजाऊ ...मुझे क्या पडी है ..
मीत्तल जी तुम जो शरीफ बने बैठे हो शराफत के कुण्ड पर ।
सच कहती हू गाज बन के गीरते हो परियों के झुण्ड पर ।।
हर इंसान की यही फितरत होती है
भर थाली देख भूख लगी होती है
मुझे तो कृष्ण कन्हैया ही कहते है हुजुर
गोपियों के झुंड पे तो इंनायत ही होती है
तुम अपना बताओ क्या हाल है
दिल में हम बसे सुबह से हमारा ही ख्याल है
तुम्हारी नज़र में हमारा छा जाना ही
हमारा मुकद्दर ए हाल है
Monday, May 26, 2008
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