Monday, May 12, 2008

प्रभु की माया

घमंड व आत्म सम्मान में बहुत थोडा फर्क होता है.
सामने वाले को भी समझने का भ्रम होता है

कंही पर हम कहना बड़प्पन व घमंड बन जाता है
कहीं पर मैं बोलते ही सामने वाला बिदक जाता है

मैं खुद अपनी आत्मा की आवाज सही मानता हूँ
सामने वाले की इज्जत करता हूँ अपनी चाहता हूँ

कई बार आप सामने वाले का दिल न दुखे इसलिए झुक कर बोलते हो
लेकीन वोह समझता है की वोह बड़ा है और तुम उस से छोटे हो

कई बार हम किसी और दुविधा में डूबे होते हैं
सामने वाला समझता है की हम घमंडी हँ तने रहते है

कई बार कोई मांगने आपके पास बड़ी आस से आता है
देखता है नोट गिनते , खुश हो जाता है

उधर सोच रहे हैं ९५ होगये ५ कहाँ से लाना है
अगर १०० पूरे नहीं कीये तो इज्जत का बाज़ा बाज़ जाना है

आप मांगने वाले को हाथ जोड़ समझाते है
लेकिन आप घमंडी स्वार्थी कंजूस समझे जाते हैं


इसलिए ठगती - घूमती इस दुनिया में यह सब ऊपर वाले की माया है
अपना मन साफ रखो,
दीनों की मदद करो ,
छोड़ दो चिंता
यह तो प्रभु की दी काया है

No comments: