मैंने ठीक ही कहा था तुम्हे की मिला न करो
मगर मुझे ये बता दो की क्यों नाराज़ रहे तुम
खाफ्फा न हो न मेरी जुर्रत -ए -ताखातूब पर
तुम्हे ख़बर थी मेरी जीन्दगी की आस हो तुम
तुमने तो इशारा कर कर के बुलाया था हमें
कौन कहता है मनाही दी थी
अदा तुम्हारी है बुलाना इंतज़ार कराना
वादाखिलाफी कर आग ए दिल को सैलाब बनाना
चस्म ए नज़र , चस्म ए नूर, लख्ते जिगर ...........
अपनी जीन्दगी से कोई खफा होकर जीन्दा कैसे रहे
और तुम तो जानती हो की तुम हमारी क्या हो ?
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Monday, May 19, 2008
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