रात की दस्तक दरवाज़े पर है,आज का दीन भी बीत गया है,
था उजाला फीर भी फीर से,अंधियारा ही जीत गया है,
एकांत की चादर ओढ़ कर फीर सेमैं खुद में खोया जाता हूँ,
आंखों के सामने यादों के रथ परमेरा ही अतीत गया है,
सन्नाटों के गुन्जन में दबकर,अपनी ही आवाज़ नहीं आती मुझको,
की सरहद पर लड़ता,आँसू भी अब जीत गया है,
टूटे दर्पण के सामने बैठकर,मैं स्वयं को खोज रहा हू
ही बैठे बैठे जाने,कीतना अरसा बीत गया है...
रात और दीन, दीन और रात
यह चक्र दीन रात चलता है
अकेले में बैठ यादों के रथ पे सवार
अतीत के ख्यालों में इंसान खोता है
कभी हंसता कभी आंसू बहाता
आँखों में सपने संजोता है
कीतना अरसा बीत गया बैठे बैठे, खुदी को याद कर,
टूटे हुए दर्पण में झांकता, 'अरवींद'
हमारे दील के करीब होता है
Thursday, April 10, 2008
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