Sunday, April 18, 2010

बगावत -अहसास ए मोहब्बत

हाल ए दिल तुम तो सुना गये
इकरार ए जुर्म अपना दर्ज करा गये
महफ़िल तुम्हारे चिराग ए हुश्न से थी रोशन
बेजार थे कसीदे पढ़ रहे थे हम तुम्हे याद कर कर
तुम चिलमन में छिपे रहे हम यारों में घिरे रहे
तुम क्या समझे हमे इल्म नही
हम तो अपनी तड़प नगमों में पिरोते चले गये
शमा में तुम्हारा अक्श देखते दास्ताँ ए मोहब्बत सुनाते चले गये
आँखें कैसे बगावत करेंगी हमसे हे बेवफा तुम जल्वाफ्रोज़ ही ना हुई
बगावत भी अहसास ए मोहब्बत ही तो है हम तो कितनी बार इसे सहलाते गये

मैंने कब दर्द के ज़ख्मों से शीकायत की है
हाँ मेरा जुर्म है के मैंने मुहब्बत की है
आज फिर देखा है उससे महफ़िल मैं पत्थर बन कर
मैं ने आंखों से नहीं दिलसे बगावत की है
उस को भूल जाने की गलती भी कर नहीं सकती
टूट कर की है तो,सिर्फ मुहब्बत की है

3 comments:

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत सुन्दर रचना हैबधाई स्वीकारें।

लोकेन्द्र विक्रम सिंह said...

वाह.... हाले-दिल के भाव में सजी एक सुन्दर रचना...

Tapesh said...

ati sundar rachnaa..wah wah