बारिश बिचारी का क्या कसूर
वोह तो है हमेशा मजबूर
उसका तो काम ही है बरसना भिगोना
कहीं सिर्फ पल्लू कहीं पूरा सराबोर
मिटटी भी बेचारी क्या करे
उस ने तो बारीश की आहट पाते ही होता है महकना
बेदर्द यह आँखे तरसती दीदार को किसी को
कभी कभी काम कर जाती हैं बारीश सा बरसाना
बारिश तो माशूक के सामने रख लेती है इज्ज़त
आंसुओं को ढक बूंदोंमें समेट लेती हें
कर मत नफरत तू बारिश से औ निशीत
यह तो आशिको की कल्पना, राहत और सहेली है
Saturday, April 3, 2010
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