सुबह शाम हमें याद आते क्यों हो,
सपनो में भी आके हमे रुलाते क्यों हो,
मेरा दिल तो सदा तुम्हारा तलबगार रहा,
फिर अभी इससे अक्सर तड़पाते क्यों हो,
ज़िन्दगी पहेले ही खड़ी है दोराहे पर,
इस पर भी तुम हमे भटकाते क्यों हो,
इश्क की इन्तहा बन गया है अब ये दर्द,
झूठे वादों से हमे बहलाते क्यों हो!!
किसी बेदर्द बहैया ने सवाल पूंछा हमसे
हमने कहा अक्स ए आईना देख
कितने दिलों को गुलाब की तरह कुचला तुने
कितने रकीबों इंनायत की दिखा कर तुने
हमने जब इज़हार ए मोहब्बत किया था
तुमसेतुमने दिखाई थी सड़कें और दुनियादारी की मुसीबतें
हम तो आज भी खडे इंतज़ार करते हैं अपने इश्क का
कब मिलेगी दो लह्मो की फुर्सत हमारी दिलरुबा को हमारे लिए
कभी आवाज देकर देखना जालिम
हम ही मिलेंगे इंतज़ार ए मेहरुबा के
कब्र के किनारे भी खडे हुए
Tuesday, April 7, 2009
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