स्मृति
हमने ना जाने कितनी
सालगिरह साथ मनाई
हर वर्ष लक्ष्मी रूप में,
तुम लक्ष्मी साथ आई।
प्रिय,
1972 का वोह दिन रह रह उभरता है
सोच सोच दिल जोर जोर धड़कता है
घोड़ी पर चढ़ मैं तुम्हे मनाने आया था।
लंबा चौड़ा लश्कर भी साथ लाया था।
तुम सहमी सी,
हिरणी की आंखो सी निहार रही थी।
दो दिलों में तो प्रेम कली खिल रही थी।
प्रति वर्ष यह तिथि खास होती थी।
मधुरतम मधु रात्रि की समृति
हर्षित मोहित करती थी।
प्रथम वर्ष समाप्ति पूर्व
ईश्वर की सौगात पाई थी।
पुत्र रत्न की किलकारी
हर किसी को हरसाई थी।
जिंदगी को विराम कहां
हमे तुम्हे था विश्राम कहां?
संघर्ष में बनी थी तुम संबल मेरा।
मेरी हार को भी जीत माना
मुझे बांधा विजय सेहरा।
क्षणिक खुशी के पलों को भी
तुम्हारा संबल मिला
कन्या और दित्य पुत्र प्राप्ति से
परिवार पूर्ण हो चला।
हम चलते चलते ना जाने
कहां से कहां पहुंच गए।
मैसूर आ कर थमना था तो जम गए।
विश्वास नहीं होता की
कैसे यह वर्ष निकल गए।
आज फिर वोह ही दिन पाया है।
विवाह की स्मृति का अवसर आया है।
तुम बिन इस दिन का कोई अर्थ कैसे।
तुम नहीं तो विवाह वर्षगांठ शूल जैसे।
आज तुम्हे याद कर
तुम्हारे चित्र को
अश्रुपुष्प अर्पण करता हूं
मन पटल पर छाई
तुम्हे नमन करता हूं।
काश आज तुम होती
इस दिन बड़ी रौनक,
देवी दर्शन, दावतें होती
सभी मित्र, बंधु बांधव,
नाती पौते बलैया लेते।
आज के दिन को
पूर्व जैसा जी लेते।
बंद कमरे में, अकेला
तुम्हारी यादों में खोया हूं।
आसमान को निहारता
तारों में तुम्हे खोजता हूं।
तुम्हारी तस्वीरों में मन विचर रहा
साथ बिताए हर पल स्मरण कर रहा
भरपूर गृहस्ती संसार है
लेकिन प्रिय तुम बिना बेकार है।
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डा श्रीकृष्ण मित्तल